निर्माण के बीच फंसा रंगमंच और पुस्तकालय
जब
2 साल पहले के अतीत में विचरण करता हूं, तो
आंखों के आगे एनएसडी परिसर का पुस्तकालय और सर्कल का हरा-भरा पार्क थिरकने लगता
है. निर्माण ने पुस्तकालय और पार्क दोनों को लील लिया. कलाकारों से उनका पसंदीदा
रिहर्सल स्पेस और पुस्तक प्रेमियों से उनकी लाइब्रेरी छीन गई और निर्माण है कि
पूरा होने का नाम नहीं ले रहा! इसकी वजह से मंडी हाउस की रंगत फीकी हो गई है.
भारत
रंग महोत्सव में नज़र निर्माण से ढ़के पार्क की तरफ ही टिकी रही. इस पार्क में दो
साल पहले हम नाटकों की रिहर्सल करते थे, लोग
बैठते थे और बच्चे मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग लेते थे. नाटकों के लिए स्पेस की कमी
को पूरा करता था, मंडी हाउस का यह पार्क, जो लोग नाटक की रिहर्सल के लिए किराए
पर स्पेस नहीं ले पाते थे,
उनका सदाबहार अड्डा था, यह पार्क. लेकिन, निर्माण की वजह से अब इसकी हरियाली सूख
सी गई है
इसी
तरह, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि)
परिसर के अंदर बना पुस्तकालय पुस्तक प्रेमियों की पसंदीदा जगह थी. इस पुस्तकालय की
बदौलत हम जैसे युवाओं में पुस्तकों के प्रति प्रेम जागृत हुआ. नाटकों को पढ़ने, उपन्यास खोजने, जर्नलिज्म की किताबों की फोटोकॉपी
कराना, सब यहीं तो किया था हमने. पहली बार
पुस्तकों से सही तौर पर परिचय इसी पुस्तकालय की गोद में सीखा, लेकिन अब यह पुस्तकालय यहां नहीं है.
मेट्रो के लिए हो रहे निर्माण ने इसे यहां से शिफ्ट करवा दिया. फूड हब में बैठी
आखें, इस पुस्तकालय की तलाश कर रही थी.
एनएसडी
परिसर की सजावट इस बार पिछले सालों के मुकाबले फीकी सी है. थोड़ी निरसता सी महसूस
हुई. खैर, गाथा ग्रुप के कलाकारों से मिलकर
प्रसन्नता ज़रूर हुई. दिल्ली में इस ग्रुप को भारतेंदु नाट्य अकादमी से स्नाकोत्तर
रंगकर्मी भूपेश जोशी चलाते हैं. कलाकार दोस्तों ने समकालीन रंगमंच और उसके सामने
आने वाली चुनौतियों के बारे में अपनी-अपनी बात कही.
प्रेक्षालयों
का बढ़ता किराया, रिहर्सल स्पेस की मुफ्त उपलब्ध न होना, किसी भी प्रकार का अनुदान न मिलना.
नाट्य रुचि का एक ख़ास वर्ग तक सिमटना. आम दर्शकों की नाटक के प्रति रुचि विकसित न
होना और इन सबके बाद नए नाटक लेखकों का अभाव. नए निर्देशकों को मौका न मिलना, फेस्टीवल में नाटक लगाने के लिए तिगड़म
भिड़ाने वालों की तादाद का बढ़ना. सबकी अपनी-अपनी शिकायते थी.
कई
ऐसे निर्देशकों के बारे में बताया, जिनका
रंगमंच में अच्छा ख़ासा नाम है, लेकिन
कलाकार को पैसा देने में ढुलमुल रवैया. फिर भी रंगमंच के प्रति प्रतिबद्धता और
युवा कलाकारों के जुनून ने दिल में खुशी भर दी. वहीं, विजय तेंदुलकर के प्रयोगात्मक नाटक 'अंजी' ने काफी प्रभावित किया. बिना ताम-झाम और भारी-भरकम सेट के भी नाटक
केवल कहानी के दम पर दर्शकों को कैसे बांध सकता है, यह इस नाटक को देखकर महसूस हुआ.
स्टेज
पर रखे एक दरवाज़े को सूत्रधार सहजता से अलग-अलग घरों के दरवाजे में तब्दील कर रहा
है. और उसी नाम का पात्र बन जा रहा है. ट्रेन में बैठी नाटक की मुख्य पात्र अंजी
दीदी के सामने वह कभी भिखारी तो कभी किन्नर की भूमिका में आता है और फिर चुपचाप
तबले वाले के बगल में बैठ जाता है. उसकी उपस्थिति स्टेज पर काफी प्रभावपूर्ण है.
वह
नाटक की कहानी आगे बढ़ाने के लिए अंजी दीदी से बातचीत करता है और बड़ी बेबाकी से
एक छिछोरे पात्र प्रभुदयाल से नाटक किसका है, भी
पूछ लेता है. वह प्रभुदयाल को स्टेज से खदेड़ देता है. प्रभुदयाल अंजी के ऑफिस में
काम करता है, और उससे छेड़छाड़ का कोई बहाना नहीं
छोड़ता. प्रभुदयाल की इस बात पर दर्शक काफी खुश होते हैं, जब वह कहता है-नाटक दर्शकों का है, नाटक क्रिटिक का है.
नाटक
के ख़त्म होने के बाद एक मित्र ने दिवंगत लेखक शैलेश मटियानी के ऊपर पिछले दिनों
पर्वतीय कला केंद्र की प्रस्तुति की खूब आलोचना की. उसकी शिकायत नाटक की म्यूजिकल
प्रस्तुति और यथार्थ से कटे होने के लिए थी. खैर, यहां नाटकों को देखना का सिलसिला पहले से काफी कम हो गया है. इस बात
का दुःख सता भी रहा है.
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