Wednesday, 29 January 2014

अन्याय के 'न्यायमूर्ति'

पश्चिम बंगाल में बीरभूम जिले के सुबलपुर गांव में पंचायती न्याय का ऐसा रूप देखने को मिला कि न्याय की अवधारणा और गरिमा पर ही प्रश्न चिह्न अंकित हो गए। एक बीस वर्षीय आदिवासी युवती का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने दूसरी जाति वाले युवक से प्रेम संबंध बनाए। गाँव के कुछ लोगों ने युवक-युवती को एक साथ बैठे देखा और खबरी बन पंचायत को बता दिया। इसे जातीय पंचायत ने अपराध माना और दोनों के परिवार पर पचास हजार रुपये का जुर्माना लगाया। युवती का परिवार इतनी बड़ी रकम चुकाने में असमर्थ था, तो पंचायत ने जुर्म के जुर्माने को सामूहिक बलात्कार में बदल दिया। पंचायती आदेश पर करीब तेरह लोगों ने उससे लगातार सार्वजनिक रूप से सामूहिक बलात्कार किया। हाँ, यह मध्यकालीन सजा का प्रावधान नहीं अपितु अंतरिक्ष युग के भारत की ही खाप-सोची दंड व्यवस्था है। महाकवि रविंद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन से महज 70 किलोमीटर और कोलकाता से 200 किलोमीटर की दूरी पर ही यह सब हुआ। न्याय के ठेकेदारों के हुक्म से उसके साथ उसकी पिता की उम्र से लेकर हमउम्र लोगों ने बलात्कार किया। वह सब उसी के आस-पड़ोस में रहते हैं, जिन्हें वो काका या भइया कहके बुलाती थी। निश्चित ही यह न्याय, मानवीय मूल्यों और रिश्तों पर शौच करने समान ही है। सवाल यह है कि इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक व पैंसठवाँ गणतंत्र मना रहे इस देश का आधुनिक प्रशासन-तंत्र इतना मुस्तैद नहीं हुआ अथवा आदरणीय प्रशासन या तो ऐसी घटनाओं को जान नहीं पाते या अनजान बनने का ढ़ोंग रचाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह घटना पहली है, इससे पूर्व भी इसी जिले के मसरा गाँव में सत्रह वर्षीय युवती को नग्न कर दस किलोमीटर घुमाया गया था। उसका कसूर भी यही था।

       वहीं यह कहना कि ऐसी घटनाएँ दूर-दराज और पिछड़े इलाकों में ही हो सकती है, गलत होगा! आधुनिक सोच से लबरेज महानगरों से निकटता रखने वाले हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों का मुखड़ा किसी से छिपा नहीं है। धर्म, जाति और गौत्र को यहाँ अतिमहत्व दिया जाता है और जो इसके विपरीत जाता है, उसकी बलि के किस्से अख़बार और समाचार चैनलों में पढ़ने-देखने को मिल जाते हैं। इसको बदलते भारत का सामाजिक मौसम भी कहा जा सकता है, क्योंकि इस नवयुगी समय चक्र को रूढ़िवादिता नामक विक्षोभ प्रभावित कर ही देता है। पुरानी रीतियों पर खाप-नीतियाँ प्रेम और अंतर्जातीय विवाहों को कतई स्वीकार नहीं करती। बहरहाल, इस घटना की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर स्वतः संज्ञान लिया है। इस घटना की जाँच जिला जज को घटना स्थल पर जाकर ही करनी होगी। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला उचित तो है लेकिन कई सवाल भी खड़े करता है, कि क्या यह सरकारी तंत्र की विफलता है? या सामाजिक विकास की नीतियों की खामियाँ? यदि यह खामियाँ है तो इसे दूर कौन करे.... तुम, हम, या 'समय'?

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