पूरब और पश्चिम,दो
विपरीत ध्रुव दो विपरीत दिशाऐँ अपनी अलग-अलग विशेषताओं के साथ आमने सामने नदी के
किनारों की भाँति,कभी न मिलने वाली स्थिति में अवलम्बित है जिनका मतलब सृष्टि का
अंत है
जो एक अनन्त कालीन
सर्वविदित सत्य है ठीक उसी प्रकार सृष्टि के आरंभ से ही पूर्वी एवं पश्चिमी
सभ्यताएँ एवं संस्कृतीयाँ अलग अलग परिवेश,जलवायु एवं वातावरण के अनुसार भिन्न रूप
से पूष्पित एवं पल्लवित हुई है एवं उपनिवेशिकरण काल के पूर्व तक एक-दूसरे से
पूणतया अनजान परिलक्षित होती है। परन्तु उसके पश्चात के वर्षो तथा इस वैश्वीकरण के
युग में सम्पूर्ण विश्व का जैसे पाश्चात्यीकरण होने लगा है हम आज अपनी उपनिवेशिक
मानसिकता के कारण अपनी संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार कर उसका अन्धाधुन्ध अनुकरण
कर रहे है।परन्तु यही पर हमें अति सूक्ष्म विचारण की आवश्यकता है
हम स्वर्धा यह भूल चूके
है कि प्रकृति ने हर परिवेश को अलग अलग परिस्थितियाँ जलवायु एवं साधन प्रदान किए
है। जिसके अनुरूप ही हमारी संस्कृति तथा अन्य संस्कृतियाँ अनुकूलित एवं परिष्कृत
हुई है।
पश्चिम की सभ्यता एवं
संस्कृति उस वातावरण एवं जलवायु में पैदा हुई है तथा उसको उसी सन्दर्भ में मादक
पदार्थो का सेवन,देर रात तक संचालित जीवन तथा अन्य,कई बातें एसी है जो उस ठण्डी
जलवायु एवं वर्फ से ढके हुए भाग के लिए उपयुक्त है किन्तु उसके दुष्प्रभाव भी
स्पष्ट परिलक्षित हो रहे है। क्यूँकि हमारा वातावरण उससे सर्वधा भिन्न एवं अनेक
जलवायु विभिन्नतओं से युक्त है।
मैं उपयुक्त एवं
समुचित पथप्रदशर्न करने वाली विशिष्टातओं को स्वीकारने का विरेध नही करती अपितु
केवल पथश्रष्ट एवं रोगी करने वाली पाश्चाय जीवन –शैली एवं उसके अनुपयुक्त
अविवेकशील अन्धानुकरण का विरोध करती हूँ जैसा की स्वामी विवेकानन्द जी ने भी कहा
था कि पूर्वी एवं पश्चिमी सभ्यता की अपनी
विशेषताओं का लेन -दन करके प्रगती का मार्ग प्रशस्त करना होगा न कि अन्धानुकरण से किसी भी संस्कृति
के अस्तित्व को दाव पर लगाना चाहिए,क्यूँकि दोनो में वही विशेषताएँ विधमान हैं।
किन्तु हमे तो अपनी
अस्मिता और अस्तित्व पूरी तरह पाश्चात शैली को अपना कर खो देने पर तुले है। मेरा
सवाल है कि अगर हम पूरी तरह अनेक रंग मे
रंग जाएंगे तो हमारा स्व अस्तित्व कँहा शेष रहेगी वरना वो दिन दूर नही जब हम आर्य
संस्कृति भूल अपनी जड खो देंगे ।
इसलिए सोचिए कितने
वर्षो उद्भव,विकास एंव प्रयास का प्रमाण एवं निष्कर्ष है।
हमारी संस्कृति जो
हम यूं ही खोते जा रहे है किसी कवि ने इसी बात को अपने कविता के माध्यम से इंगित करते हुए कहा है
“सदियों की कुर्बानी यूँ ही बेमोल बिकी
जम्हाई लेने में ही
हो गया सवेरा यदि
इतिहास न तुमको माफ
करेगा याद रहे
पीढीयाँ तुम्हारी
किसी बात पर पछताएंगी
पूरब की लाली मे
कालिख पुत जाएगी”
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