Monday, 3 February 2014

ऊर की कब्र

इतिहास हमेशा से हमें गौरवपूर्ण लगता रहा है। हमें लगता है कि पिछला युग स्वर्ण युग था और हम इतिहास के सबसे बुरे दौर में जी रहे हैं। इतिहास का मतलब ही वैभव और भयावयता  लगने लगता है। यह खास लोगों का इतिहास है। यही वो तबका है जो पहले भी पहले भी अकूत संपदा अर्जित करते रहे हैं और आज भी ये बड़े-बड़े महलों में रहते हैं।कभी बड़े बड़े महलों तो कभी किलों, भयावह कारागारों के माध्यम से शासक वर्ग ने आम लोगों में अपना खौफ बनाये रखा और की गुलामी की ओर धकेलाऔर शोषण के प्रतीक ये लोग इतिहास का अभिन्न हिस्सा बन गये।

ऊर की कब्र, जी हां शुबाद की रानी की ऊर की कब्र इसी सत्ता के वैभव का प्रतीक है।लेकिन शुबाद की ही नहीं,यह चालीस मंजिल गहरी है जिसमें चालीस कब्र हैं। तब ऊर में गहराई कब्रों से मापी जाती थी। जिस तरह मकबरे और पिरामिड ऊचाई के लिये जाने जाते हैं, उसी तरह  ये गहराई के लिये जानी जाती हैं।हजारों वर्ष पुरानी यह कब्र चालीस पुश्तों की है। इस कब्र के नीचे , ऊर के पहले राजकुल के राजाओं की और ऊर पर  शासन  करने वाले विभिन्न साम्राज्यों के शासकों की कब्र हैं। हजरत नूह की नौका की कहानी और मनु की तरणी की कथा, वास्तव में ऊर के गिल्गमिश की कहानी है। जो कि 300ईसा पूर्व में दजला फरात की घाटियों में हुआ था , ऊर तब इसकी राजधानी थी। तब उसके कृत्यों की छाया यहां के ऋग्वेद व अथर्ववेद पर पड़ती थी। आज से सात हजार वर्ष पहले ऊर एक वैभव संपन्न राज्य था। यह तब सुमेरियों की राजधानी थी।वहां रहने वाली विभिन्न जातियों के पुरोहितों ने  अपने देवता ,स्वर्ग , नरक, सभी कुछ रच लिये थे। प्राचीन ऊर की राजशक्ति पुजारियों के ही हाथ में केन्द्रित थी। ऊर का पुजारी स्वयं ही राजा था । उसे शक्ति के लिये किसी और की तरफ नहीं झांकना पड़ता था।

यह एक विडंबना ही कही जायेगी कि अपने गढ़े गये स्वर्ग के लिये , वहा वैभवपूर्ण जीवन जीने के लिये या  ये कहें वैभवपूर्ण मौत जीने के लिये एक क्रूरतापूर्ण पाखंड रचा जाता था। राजा के मरने पर उसकी रानियों, प्रेमिकाओं, दास , दासियों, उसके दरबारी और मंत्री को शव के आसपास उसी क्रम में खड़ा किया जाता था जितने वे राजा के जीवन में करीब होते थे। पुरोहित कुछ शब्दों का उच्चारण करते और वे लोग जहर के प्यालों को होंठो से लगाकर जमीन पर ढ़ेर हो जाते।  उनके अस्थिपंजरों के पास मिले खाली प्यालों की कहानी उस क्रूरता को आज भी जीवंत कर देती है। कहीं कोई प्रतिकार की संस्कृति नहीं दिखती। ये हाल तो उच्च वर्ग का था तो दासों की क्या हालत रही होगी जो राजा के साथ ही बलि होते थे।

मरने वाले राजा के साथ उसकी अपार संपदा भी गाढ़ दी जाती थी।  इसके साथ ही चोरी का नया व्यापार खड़ा हो गया था वह था इन कब्रों में चोरी का और उसमें होने वाली साझेदारी का उसके भागीदार भी ये एक खास वर्ग ही था। ये तथाकथित सभ्य लोग ही थे और उनकी इमारतें जिन्हें इतिहास में अपनी जगह बनायी। जिन पर इतिहास गर्व करता है, हम गर्व करते हैं पर सोचना ये है कि क्रूरता के प्रतीक ऐसे इतिहास पर कब तक इसी तरह हम लोग गर्व करते रहेंगे। और एक आम इंसान के आंसुओं से भरे इतिहास का जश्न कब तक मनाते रहेंगे।

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