Monday 3 February 2014

गुरु शिष्य परम्परा

                सब धरती कागज करु, लेखक सब वनराज
                साज समुद्र की मसि करु, गुरु गुण लिखा न जाय
जो ज्ञान गंगा हमारे मन में प्रवाहित हो रही है, गुरु नाम के स्मरण से ही उस धारा मे उफान पैदा हो जाता है। हमारे यहां गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर है। गुरु की शक्ति को आज तक कोई नहीं जान पाया । तुलसीदास जी ने घोर अज्ञानरुपी अंधकार में गुरु की वाणी को सूर्य की किरण के समान बताया है परंतु यह सब बातें मुझको अजीब लगती हैं । आज शब्द से जुङा हर वाक्य व्यवसायिक लगने लगा है ,जिस गुरु की तुलना ब्रह्मा,विष्णु,महेश से की जाती थी , वह आज शिक्षा को व्यापार बना रहें हैं।
भारत वर्ष में वर्षों से गुरु शिष्य परम्परा चली आ रही है जो कभी भी समाप्त न होने वाली कङी है। पर इस परम्परा में धीरे धीरे आधुनिकता अपना स्थान बना रही है। सदियों पहले शिष्यों ने गुरु को सम्मानित करने के लिए गुरु वेदव्यास के जन्मदिवस को गुरु पूिर्णमा के रुप में मनाया जाता था, जिसे आज के शिष्य पूरी तरह भूल चुके हैं । भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन के शिक्षण के क्षेत्र में कियें गये अविस्मरणीय योगदान के लिए ५ सितम्बर १९६२ ई० में उके जन्म दिवस ५ सितम्बर को शिक्षक दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की गई।
जब जब गुरु और शिष्य की चर्चा होती है तब तब महान दो्रणाचार्य और एकलव्य का नाम अपने आप स्मरण होने लगता है एकलव्य एक मात्र ऐसे शिष्य थे जो गुरु से दूर रह कर भी गुरु नाम के स्मरण मात्र से ही वो सभी ज्ञान प्राप्त कर पाए जो दूसरों के लिए संभव नहीं था । पहले गुरु हुआ करते थे, जो अपने शिष्यों का हर तरह से विकास चाहते थे। पर अब गुरु मास्टर बन कर उभर आया बै। ताकि शिष्यों को ठोक पीटकर ठीककर सकें । जैसे जैसे इस पद के साथ पैसा जुङता गया वैसे वैसे इसका सम्मान फीका पङता गया। शिष्यों दव्ारा गुरु को चरण स्पर्श करना आज बीते दिनों का किस्सा प्रतीत होता है। आखिर कौन से हालात हैं जिनसे गुरुओं की महिमा को मटियामेट किया शायद पैसा , बाजारबाद से प्रेरित होकर ही सरस्वती का मंदिर मुनाफा कमाने की दुकान बन गया  है।
पिछले पाँच सालों में जितने निजी – स्कूल कॉलेज खुले हैं उतनी फैक्ट्रीय नहीं लगी। इससे यह तो साबित होता है कि स्कूल – कॉलेज मुनाफे का सौदा है। शिक्षा को ज्ञान की जगह रोजगार का जरिया बना दिया गया । रोजगार के लिये जब डिग्री आवश्यक बन गयी तो उसे पाने की जुगत भी तेज है हुई। ज्ञान और डिग्री का रिश्ता इस कदर टूटा कि गुरु शिष्य के रिश्तों के बीच बदलाव आ गया ।
आधुनिक गुरु और शिष्य दोनों की मनोदशा में काफी बदलाव हुआ है । आज गुरु शिष्य के रिश्ते दोस्ती में परिवर्तित हो रहे हैं । जिससे गुरु रे प्रति शिष्यों का सम्मान घट रहा है। साथ ही पहले की  तरह अब गुरुओं में खोटे को खरा बनाने की इच्छा शकि्त नहीं रही। जिसका कारण आज गुरुओं को शिष्यों में बढोतरी भी है।
अगर चाणक्य अखण्य भारत की परिकल्पना नहीं करते तो चंद्रगुप्त जैसा व्यकि्त संपूर्ण भारत पर शासन नहीं करता । श्री क्रष्ण अगर गीताउपदेश नहीं देते तो अर्जुन का जीवन लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाता । गुरु की जरुरत इस समाज में हमेशा होती रहेगी।चाहे गुरु की श्रेणी कितना भी बदल क्यों न जाए एक समाज की संरचना गुरु के बिना संभव नहीं हैं ।

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