Wednesday 29 January 2014

किताबों की ओर

किताबों के नाम से ही मन में एक भारी भरकम से बस्ते की तस्वीर उभर आती है। माएं तो बकायदा बच्चों को डराती भी हैं शैतानी मत कर वर्ना पढने के लिये बिठा दूंगी। गोया कि कोई पढाई नहीं हो गई गब्बर शेर हो गया। खैर ये तो बात हुई स्कूली पढाई की। पर समस्या ये है कि किताबों का पढ़ा जाना घट रहा है। एक निर्धारित पाठ्यक्रम  है एक डाक्टर के लिये एक इंजीनियर के लिये। बस स्पेस खत्म। एक समाज को समझने में किताबों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन नई पीढ़ी का इस तरह किताबों से दूर होना एक तरह से संस्कृति की समझ से काट रहा है।
किताबें पढ़ना सिर्फ चंद पंक्तियों से गुजर जाना भर नहीं होता। यह एक सांस्कृतिक कर्म है
एक  सामाजिक उत्तर दायित्व। जिसे निभाते हुए वर्तमान पीढ़ी को भविष्य की  पीढी में भी देना है। पुस्तक मेला, या पुस्तकालयों की यहां एक बड़ी कमी है। किताब पढ़ने की संस्कृति को विकसित करने के लिये किताबें गिफ्ट करने का चलन भी काम आ सकता है। लेकिन पढ़ाई के प्रति रुचि को विकसित कैसे किया जाये ये एक बड़ा सवाल है, एक समस्या भी।
मैं अपने भाई का जिक्र करूंगी। मैंने जब उसे किताब गिफ्ट की तो उसका जवाब था कि मेरे पास फालतू समय नहीं है। कपडे क्यों नही लायी । दिक्कत ये है कि उसके मन में कभी किताबों के प्रति भूख ही नहीं जगाई गई। जब तक जरूरत ही महसूस ना हो, किसी भी चीज को आत्मीयता ही ना करे तो उसे कैसे जोड़ा जा सकता है। हम में से कितने लोग हैं जो अपने बजट में किताबों को शामिल करते हैं।

फरवरी में दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला होने जा रहा है। जिसका पाठकों को बेसब्री से इन्तजार है। परन्तु इस तरह की कोशिशें सिर्फ नगरों महानगरों तक सामित हैं। जरूरत यह है कि ऐसे आयोजन हर जगह किया जाये। एक नई नस्ल में पुस्तक प्रेम का बीज बोया जाये।

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